प्रेमचंद ने इस कहानी के माध्यम से भारतीय जातिप्रथा की सबसे घृणित परंपरा अस्पृश्यता (छुआछूत) के कारण तिरस्कार, अपमान और मानवीय अधिकारों से वंचित जीवन जी रहे अछूतों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को अभिव्यक्त किया है। पानी के लिए तरसते अछुत जीवन की वास्तविकता की यह कहानी है।
इसे पढ़ने के बाद आप –
भारतीय समाज में जातिप्रथा के कारण गैर-बराबरी, अभाव, विपन्नता, तिरस्कार, उत्पीड़न को सह रहे तमाम अछूत वर्ग की त्रासदी को जान सकेंगे। उस पर गहराई से सोच सकेंगे।
इंसान ने ही जातिगत भेदभाव के आधार पर गैरबराबरी को बढ़ावा देकर उसे स्थायी रूप देने के लिए अनेकानेक धार्मिक, पारंपारिक, सनातनी ढकोसलों का सहारा लिया और किस प्रकार करोड़ों अछुतों को इन्सान होने के दर्जे से नीचे गिराकर गुलामों का जीवन जीने पर मजबूर किया, इस वास्तविकता को आप जान सकेंगे।
अछूत गंगी को पानी के लिए जातिप्रथा और छुआछूत परंपरा की बाधाओं को पार करके, जीवन को दांव पर लगाना पड़ता है, इस सच्चाई से आप परिचित हो सकेंगे।
गंगी की अछूत बस्ति में उनका अपना कुआं न होना अछूतों की गरीबी और आर्थिक विपन्नता की स्थिति को दर्शाती है। अछूत बस्ति आर्थिक रूप से इतनी विपन्न क्यों है? के सवाल को भी समझने में यह इकाई आपकी सहायता करेगी।
अस्पृश्यता का व्यवहार करने वाले हिंदुओं से संघर्ष करने के स्थान पर गंगी का पलायन करना, समस्या का समाधान नहीं है, बल्कि जातिप्रथा और अस्पृश्यता निर्मूलन के लिए गंगी द्वारा कड़ा संघर्ष करने की आवश्यकता थी। इससे आप सहमत हो सकेंगे।
प्रेमचंद आधुनिक युग के पहले महत्वपूर्ण लेखक है जिन्होंने दलित समस्या पर सर्वाधिक गहराई से विचार किया है। प्रेमचंद के समकालीन अन्य रचनाकारों में राहुल सांकृत्यायन और निराला ने भी दलित जीवन की भयावह त्रासदी को वाणी दी है, लेकिन सबसे सशक्त रचनाएँ प्रेमचंद ही दे पाए हैं। उन्होंने आधुनिक भारतीय समाज में जातिव्यवस्था के कारण अछूत माने गए दलित समाज के त्रासद अनुभवों को अपने रचना कर्म का विषय बनाया है। ‘ठाकुर का कुआँ,’ ‘सद्गति .’ ‘दूध का दाम,’ । ‘कफन’ आदि कहानियाँ दलित जीवन में व्याप्त अभाव, पीड़ा, उत्पीड़न और दर्द को अभिव्यक्त करती हैं। उनकी कहानियों में छुआछूत का विरोध स्पष्टतः सामाजिक और आर्थिक संदों के रूप में किया गया है। प्रेमचंद मानव-मानव के बीच समानता का पुरस्कार करते हैं, और विशिष्ट जातियों के जन्मगत विशेषाधिकारों का विरोध करते है। मनुष्य का स्थान अच्छे गुण और कर्मों के आधार पर निश्चित होना चाहिए न की जन्म के आधार पर। लेकिन हिंदू धर्म के जिस तर्क के कारण जातियों का विभाजन, विभिन्न जातियों के बीच रोटी-बेटी के व्यवहार का निषेध किया गया, और अछूतों के मानवाधिकारों को छीनकर उनका शोषण किया उच्च कही गई जातियों को न केवल विशेषाधिकार दिए बल्कि उसकी सुरक्षा के लिए कानून बनाकर उन्हें कड़ाई से लागू किया जाता है। जातिव्यवस्था के तहत जन्मना जाति तय होने से व्यक्ति का न केवल सामाजिक दर्जा बल्कि व्यक्ति की आर्थिक स्थिति भी निश्चित हो जाती है। जाति के आधार पर पेशों का बंटवारा तथा उत्पादन के साधनों पर अधिकार या उससे वंचित किया जाना भी जातिव्यवस्था द्वारा निर्धारित होता है। इस सबके पीछे धर्म का आधार दिया गया है। ब्रह्मा के विभिन्न अंगों से जातियों की निर्मिति की मनगढंत झूठी कहानी जन्मना जाति निर्धारण के लिए उपयोग में लाई गई। अपने को श्रेष्ठ बनाएँ रखने के लिए इस झूठी कहानी को भाग्य, कर्मफल, पूनर्जन्म के झूठे तर्क का सहारा दिया गया।
- अंधविश्वास और शिक्षा के अभाव में निम्न तबका इसे ही अपना प्रारब्ध समझता रहा। ज्ञान और शिक्षा के अधिकार से वंचित रखने का धर्म के ठेकेदारों का यह छल तब से लेकर आज तक सफल होता आ रहा है। इस धार्मिक छल-कपट, श्रेष्ठता के ढोंग, आर्थिक उत्पादनों पर इनके एकाधिकार और निम्न जातियों को मानवीय अधिकारों संचित किए जाने की साजिशों का पर्दाफाश प्रेमचंद ने अपनी कहानियों के माध्यम से किया है। ‘ठाकुर का कुआं’ कहानी अछूतों के मानव अधिकारों की पूर्ति बिना दयनीय स्थिति में जीने की त्रासदी को चित्रित करती है। वर्ण – जाति व्यवस्था जैसी अतीशय अमानुषिक रचना से हम सभी परिचित हैं। यह कोई अनायास नहीं है कि दलितों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली भारतीय जनसंख्या का साठ प्रतिशत हिस्सा दलित समुदाय है। वर्ण व्यवस्था ने समाज मे असमानता और श्रेणीनुमा ढांचा पैदा करके दलितों को सभी सुख सुविधाओं से वंचित रखा।कथित ऊँची जाति के कुओं से ये पानी नहीं ले सकते। इनका अपना कुआँ हो नहीं सकता कथित ऊँची जाति की दया पर निर्भर रहकर पानी के लिए तरसना ही इनके जीवन की त्रासदी है। घंटो याचना करने पर किसी सवर्ण का मन पसीजा तो दो चार बाल्टियों से मटके भर देंगे, वह भी एहसान जताते हुए और हजार गलियाँ देकर। पानी जैसी मानव जीवन की मूलभूत जरूरत, जो एक प्राकृतिक संपदा है। लेकिन सवर्णों ने सत्ता और संपत्ति के जोर पर इसे अपने वर्चस्व में कर लिया है। इस वर्चस्व का विरोध करने अथवा इस व्यवस्था को तोड़ने पर अछूतों को गाँव पंचायतों द्वारा अपमानित, उत्पीड़ित किया जाता है या इन्हें मार दिया जाता है। ‘ठाकुर का कुआँ’ दलितों की इसी गंभीर समस्या को उजागर करती है।